Uttarakhand and National-Current Affairs Hindi News Portal

रोजगार है असली समस्या

अजीत द्विवेदी
सेना में भर्ती की अग्निपथ योजना के खिलाफ एकदम से जो उबाल आया है वह देखने में भले तात्कालिक प्रतिक्रिया लगे लेकिन असल में युवाओं के रोष और हिंसक प्रदर्शन की जड़ें ज्यादा गहरी हैं। यह रोजगार को लेकर उनकी भविष्य की चिंता से जुड़ी है। पिछले दो साल से सेना में बहाली नहीं हो रही है तब भी नौजवान इस उम्मीद के साथ प्रतीक्षा और तैयारी कर रहे थे कि कभी न कभी तो बहाली शुरू होगी। तभी जब नियमित बहाली की जगह चार साल तक ठेके पर नौकरी देने की योजना घोषित हुई तो युवाओं ने बेहद गुस्से में इसके खिलाफ प्रतिक्रिया दी। वे सडक़ों पर उतरें, रेलवे स्टेशनों पर तोड़-फोड़ की, गाडिय़ां जलाईं, सडक़ें जाम की और सरकार के खिलाफ अपना गुस्सा जाहिर करने के हरसंभव तरीके का इस्तेमाल किया। फिर अचानक तीन-चार दिन के हिंसक प्रदर्शन के बाद शांति बहाल हो गई। मान सकते हैं कि प्रदर्शन करने वाले युवाओं का एक बड़ा तबका वहीं चार साल की नौकरी हासिल करने की तैयारियों में लग गया होगा। क्योंकि उसके सामने नौकरी ओर रोजगार के विकल्प नहीं हैं।

वह सरकार की ओर से दिए गए तर्कों से संतुष्ट नहीं है। लेकिन वह मजबूर है। सेना के वरिष्ठ अधिकारियों की ओर से जिस तरह की धमकी भरी भाषा में बात की गई उससे वह डरा भी। उसे अपना करियर खराब होने की चिंता हुई। वह मजबूरी में शांत हुआ है। हताशा और नाउम्मीदी में उसने समझौता किया है। पिछले कुछ दिनों में ऐसे कई मौके आए, जब नाउम्मीद युवाओं ने इस तरह के हिंसक प्रदर्शन किए। इसी साल जनवरी में रेलवे में ग्रुप डी की भर्ती परीक्षा में गड़बड़ी को लेकर बिहार में युवाओं ने बड़ा प्रदर्शन किया था और तब भी कई शहरों में रेलवे स्टेशनों पर तोड़-फोड़ हुई थी, ट्रेनें जलाई गई थीं। रेलवे परीक्षा में गड़बड़ी को लेकर उत्तर प्रदेश और कुछ अन्य राज्यों में भी प्रदर्शन हुए थे। भर्ती बंद होना और नियमित रोजगार के अवसर लगातार कम होते जाना एकमात्र समस्या नहीं है, जिससे छात्र और युवा परेशान हैं। प्रश्न पत्र लीक हो जाना और नतीजों में धांधली की समस्याएं भी आम छात्रों को बहुत परेशान कर रही हैं।

वे इस मनोवैज्ञानिक दबाव में हैं कि देश में नियमित नौकरियां बहुत कम हो गई हैं। सरकारी विभागों में भर्ती या तो बंद है या बहुत कम हो रही है। सार्वजनिक क्षेत्र की कंपनियां बिक रही हैं, जिससे रोजगार के अवसर घट रहे हैं। देश में बेरोजगारी की भयावह तस्वीर बताने वाले कई आंकड़े सबके सामने हैं। बेरोजगारी की दर सात फीसदी से ऊपर है। भारत के इतिहास में यह पहली बार हो रहा है कि विनिर्माण और सेवा क्षेत्र की बजाय कृषि क्षेत्र में रोजगार बढ़ रहा है। ध्यान रहे सबसे ज्यादा रोजगार देने वाला सेक्टर विनिर्माण का है, जिसे आगे बढ़ाने के लिए मेक इन इंडिया योजना की घोषणा की गई थी। इसके बावजूद अगर कृषि सेक्टर में रोजगार बढ़ रहा है तो वास्तविकता का अंदाजा लगाया जा सकता है। पिछले कई सालों में पहली बार हो रहा है कि मनरेगा में रोजगार मांगने और करने वालों की संख्या बढ़ी है। यह भी देश की संगठित और असंगठित दोनों सेक्टर के रोजगार की कहानी बयान करता है।

प्राइवेट थिंक टैंक ‘सेंटर फॉर मॉनिटरिंग इंडियन इकोनॉमी’ यानी सीएमआईई ने पिछले दिनों बताया कि ऐसे लोगों की संख्या में तेजी से बढ़ोतरी हो रही है जो नौकरी की तलाश ही नहीं कर रहे हैं। सीएमआईई के आंकड़ों के मुताबिक भारत में ऐसे लोगों की संख्या 45 करोड़ हो गई है, जो कामकाज करने की उम्र के हैं और किसी न किसी किस्म के रोजगार के योग्य हैं लेकिन नौकरी नहीं तलाश रहे हैं। भारत में कानूनी रूप से नौकरी करने की उम्र वाले लोगों की संख्या 90 करोड़ है, जिसमें से आधे लोग नौकरी ही नहीं तलाश रहे हैं क्योंकि उन्होंने नौकरी मिलने की उम्मीद छोड़ दी है। इसी रिपोर्ट के मुताबिक 2017 से 2022 के बीच समग्र श्रम भागीदारी 46 फीसदी से कम होकर 40 फीसदी हो गई। इस अवधि में दो करोड़ से ज्यादा लोगों ने काम छोड़ा और सिर्फ नौ फीसदी योग्य आबादी को रोजगार मिला। देश की महज नौ फीसदी महिलाओं के पास काम है या वे काम की तलाश कर रही हैं।

सोचें, जहां रोजगार की ऐसी स्थिति है वहां अगर किसी एक सेवा में स्थायी और नियमित नौकरी की उम्मीद हो और उसमें अचानक सदियों पुराने भर्ती के नियमों को मनमाने तरीके से बदल दिया जाए तो युवाओं पर क्या बीती होगी? वे किस मन:स्थिति में होंगे। तभी यह कहने में कोई हिचक नहीं है कि असली समस्या अग्निपथ योजना नहीं है, बल्कि असली समस्या नियमित नौकरी की कमी है। अगर सेना से लेकर रेलवे तक और केंद्र व राज्य सरकारों में नियमित बहाली चल रही होती और तब किसी एक जगह भर्ती के नियम बदले जाते तो शायद इतनी उग्र और हिंसक प्रतिक्रिया नहीं देखने को मिलती।

असल में पिछले पांच-छह साल में रोजगार का परिदृश्य पूरी तरह से बदल गया है। नवंबर 2016 में नोटबंदी किए जाने से बाद से भारतीय अर्थव्यवस्था में जो गिरावट शुरू हुई है वह संभाली नहीं जा सकी है। मार्च 2018 की तिमाही से सकल घरेलू उत्पाद यानी जीडीपी की दर में जो गिरावट शुरू हुई वह आज तक जारी है। उसी बीच दो साल कोरोना महामारी की वजह से हुए लॉकडाउन के कारण अर्थव्यवस्था रसातल में पहुंच गई। आज सात या आठ फीसदी की अनुमानित विकास दर का जो ढिंढोरा पीटा जा रहा है वह माइनस में या एक-दो फीसदी की विकास दर के मामूली आधार की वजह से है। असल में भारत का सकल घरेलू उत्पाद बड़ी मुश्किल से 2018-19 की जीडीपी के बराबर पहुंचा है। इसलिए नौकरी मिलने से नाउम्मीद होते जा रहे लोगों की संख्या बढ़ रही है और जो अब भी उम्मीद लगाए बैठे हैं उनको झटका लगता है तो वैसी प्रतिक्रिया देते हैं, जैसी अग्निपथ योजना के विरोध में देखने को मिली है।

Get real time updates directly on you device, subscribe now.

You might also like
Leave A Reply

Your email address will not be published.