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राष्ट्रीय संगोष्ठी -भारत की एकात्मता और जनजातीय संस्कृति

पार्थसारथि थपलियाल

(6-7 अगस्त 2022 को अंतर विश्वविद्यालय संवाद केंद्र सभागार में आयोजित संगोष्ठी का श्रृंखलाबद्ध सार)

आज 9 अगस्त विश्व जनजातीय दिवस है। सभी को मंगल कामनाएं।

डॉ. अशोक वार्ष्णेय वे तपस्वी हैं जिन्होंने वनांचल में अरण्य संस्कृति को माँ के आंचल जैसे देखा है, वर्तमान में वे आरोग्य भारती के संगठन मंत्री हैं और आयुष मंत्रालय, भारत सरकार में सलाहकार भी हैं। उन्होंने प्रकृति के साथ मानव संबंध से अपनी बात शुरू की। जल, जंगल और ज़मीन इनके साथ जनजातीय समाज का गहरा नाता है।

आधुनिक जीवनशैली के जो लोग प्रकृति के सहचर्य में नही रहे वे लोग इन सरल स्वभाव की अरण्य संतानों को समझ भी नही पाएंगे। पेड़-पौधे, जल, अग्नि, चंद्र और सूर्य दुनियाभर के जनजाति समुदाय में किसी न किसी तरह महत्व रखते हैं और उनकी पूजा करते हैं। वे लोग अपने बच्चों से वैसा ही प्यार दुलार करते हैं जैसे अन्य समाज के लोग अपने बच्चों से करते हैं। अंतर इतना ही है कि अन्य समाज के लोग अपने बच्चों को आधुनिक खिलौने देते हैं जबकि वनवासी समुदाय के लोग प्रकृति में से ही कुछ चीजें अपने बच्चों को देते हैं। जैसे कोई फूल जो प्रकृति में खिल रहा हो। वे इस बात का ध्यान रखते हैं कि बच्चे को कौन सा फूल देना चाहिए। क्योंकि छोटा बच्चा हर चीज को मुंह मे डालने का प्रयास करता है। इसलिए ऐसा फूल खेलने को देते हैं जिसे मुंह मे भी डाल दे तो बच्चे के स्वास्थ्य पर बुरा प्रभाव न पड़े।
डॉ. वार्ष्णेय ने बताया कि जनजाति वर्ग ने भारत में अंग्रेजों का भरपूर विरोध किया, क्योंकि उन्हें लगता था कि अंग्रेज उनके जल, जंगल और ज़मीन पर कब्जा करते हैं, जिससे अंक अधिकार क्षेत्र प्रभावित हो रहा है।

अपने व्याख्यान में उन्होंने झारखंड के खूंटी जिले में जन्मे क्रान्तिकारी बिरसा मुंडा (1875-1900 ईस्वी) जिन्हें जनजाति के लोग भगवान मानते हैं, उनके द्वारा अंग्रेजों के विरुद्ध संघर्ष और युद्ध का उल्लेख किया। बिहार, बंगाल, झारखंड, छत्तीसगढ़ और मध्यप्रदेश का जनजाति का समाज उन्हें “धरती आबा” (अर्थात धरती का भगवान) नाम से स्मरण करता है। विशेषकर 1894 से 1900 के मध्य क्रांतिकारी बिरसा मुंडा ने अपने समुदाय को एकजुट कर अंग्रेजों पर अपने पारंपरिक तीर कमान, कुल्हाड़ी, भाला बरछा के साथ युध्द किया। इसके लिए उन्हें अंग्रेजों ने बुरी तरह से यातनाएं दी जिस के फलस्वरूप बिरसा मुंडा जी का निधन हो गया। यह युद्ध भारत की एकात्मता के लिए था। राष्ट्र रक्षा के लिए जनजातीय समाज के योगदान को इतिहास में वह स्थान नही मिला जिसके वे हकदार थे। 2021 में भारत सरकार ने क्रांतिकारी बिरसा मुंडा का जन्मदिन 15 नवंबर को “जनजातीय गौरव” दिवस के रूप में मनाना शुरू किया है।

भारत में अंग्रेज़ी शासनकाल में ईसाई मिशनरियों को धर्मान्तरण का बड़ा प्रोत्साहन दिया गया। आदिवासियों का बहुत बड़ी संख्या में ईसाईकरण हुआ है। सरल प्रकृति के इन लोगों को बहला फुसलाकर कर भारत की संस्कृति से विमुख किया गया। धर्मान्तरण के काम का अब स्वरूप बदल गया है। मिशनरियों ने अपनी वेशभूषा सनातनी बना ली है। शहरी क्षेत्रों में कॉन्वेंट स्कूलों के माध्यम से जनजातीय लोगों का ईसाईकरण किया जा रहा है। संस्कार बदले जा रहे हैं। लोग अक्सर कहते हैं कि आधुनिक बच्चे संस्कार विहीन हो गए। वे यह नही सोचते कि बोया पेड़ बबूल का आम कहाँ से खाय।

समस्या का निदान पक्ष पर केंद्रित होते हुए डॉ. वार्ष्णेय ने कहा हमें जनजाति समुदाय के मध्य बहु आयामी बोध जगाना होगा, उन्हें उनकी पारंपरिक संस्कृति व रीति रिवाजों से जोड़ना होगा, उनमें अपने प्रतीकों के प्रति दृष्टि निर्माण करने का अभियान चलाना होगा। एक और महत्वपूर्ण बात है धर्मान्तरित लोगों को अनुसूचित जनजाति के मिलनेवाली सुविधाओं से वंचित करना। यह सब सकारात्मक पहल के साथ किय्या जाना चाहिए। इस मामले में कार्यकर्ताओं की दृष्टि स्थिर होनी चाहिए। भारतीय स्वाधीनता संग्राम में जनजातीय सूरमाओं के योगदान पर जब मंथन होगा तो जनजातीय गौरव का सूत्रपात भी होगा।

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