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ये आग जो लगी है

अभी जो आग लगी है, उससे अविलंब सबक लेने की जरूरत है। नीति निर्माताओं को इस बात पर सोचना चाहिए कि आखिर पिछले तीन साल सडक़ें लोगों के गुस्से के इजहार क्या मंच क्यों बन गई हैं?

सरकार की अग्निपथ योजना से सचमुच देश में आग भडक़ उठेगी, सत्ता में ऊंचे पदों पर बैठे लोगों को इसका अंदाजा नहीं रहा होगा। लेकिन अब जबकि आग की लपटें दूर-दूर तक दिखी हैं, तो यह उचित होगा कि वे इसके कारणों पर गौर करें। अग्निपथ योजना से भारत की सुरक्षा व्यवस्था में क्या विसंगतियां पैदा होंगी, यह दीगर सवाल है। व्यापक संदर्भ में असल सवाल यह है कि सरकार की इस प्रायोगिक योजना से आखिर इतने बड़े पैमाने पर नौजवानों में गुस्सा क्यों भडक़ उठा? सडक़ों पर फूटते गुस्से का दायरा देखते-देखते जिस तरह विभिन्न राज्यों में फैल गया, वह इस बात का संकेत है कि सारे में बेहतर जिंदगी के प्रति निराशा का भाव समान रूप से फैला हुआ है। जब आम लोगों के आर्थिक हालात लगातार बिगड़ रहे हों, तो ऐसे भाव का घर जमा लेना अस्वाभाविक नहीं है।

इस परिस्थिति में अब हेडलाइन मैनेजमेंट की सीमाएं साफ होने लगी हैं। सरकार को इस पहलू पर अब अवश्य ध्यान देना चाहिए कि आर्थिक आंकड़ों में हेरफेर से जनमत को संभालना अब लंबे समय तक संभव नहीं होगा। इस रूप में ये प्रयास खुद सरकार के लिए झांसा बन कर रह जाएगा, जैसाकि अभी हुआ दिखता है। लेकिन यह स्थिति सिर्फ वर्तमान सरकार के लिए चुनौती नहीं है। बल्कि विपक्षी दलों के सामने भी यह सवाल है कि अब जहां देश पहुंच चुका है, उसे वहां से निकलाने का उनके पास क्या फॉर्मूला है? यह तो साफ है कि देश जिन आर्थिक नीतियों पर पिछले साढ़े तीन दशकों से चला है, वह अब रास्ता एक बंद गली में पहुंच गया है। यहां नए सिरे से सोचने और नया रास्ता तय करने की जरूरत है। वरना, मोनोपोली कायम कर चुके कुछ पूंजपति और उनसे जुड़े हित वाले सीमित तबकों की समृद्धि बढ़ती रहेगी, जबकि पूरा देश दरिद्रता में डूबता जाएगा।

ऊपरी तबकों की चमक को देश की खुशहाली मानने और उससे लोगों में आस जगाने का तरीका अब चूक रहा है। इसलिए अभी जो आग लगी है, उससे अविलंब सबक लेने की जरूरत है। नीति निर्माताओं को इस बात पर सोचना चाहिए कि आखिर पिछले तीन साल सडक़ें लोगों के गुस्से के इजहार क्या मंच क्यों बन गई हैं?

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